याद आता है मुझे वो बिता हुआ जमाना जब हम बहुत छोटे थे तब हमारे परिवार में कुछ ऐसी परिस्थितियां आई जब हमें अपने नानी के घर जाकर रहना पड़ा। बिहार के डाल्टेनगंज से करीब ५० किलोमीटर की दुरी पर एक गाँव कुटमु जो अब झारखण्ड राज्य में स्थित है। वहां की कुछ मीठी तो कुछ बहुत मीठी और कुछ खट्टी तो कुछ बहुत खट्टी यादें हैं जो गाहे बगाहे मुझे याद आती रहती हैं.
एक ऐसी याद जो मुझे हमेशा याद आती है वो है मुहर्रम पर निकलने वाला ताज़िया। हमारे नाना कुटमु गाँव के जमींदार हुआ करते थे, एक रोज़ बड़े सवेरे से ही दरवाजे के बाहर झाड़ सफाई का काम होने लगा जैसे आमतौर पर हमारे त्योहारों पर होता है। देखा बाहर चारो तरफ झाड़ू लगवाई गई फिर पानी का छिड़काव किया गया। घर के सारे लोग खासकर मर्द
जैसे हमारे नानाजी, बड़े मामा , छोटे मामा ,भैया लोग सब नहा धोकर तैयार होकर बहार प्रतीक्षारत हो गए। और घर की महिलाएं मलिदे ( एक प्रकार की मिठाई जो गुड़ ,आटे , घी वैगरह को मिलाकर बनाया जाता है ) बनाने की तैयारियां करने लगी। फिर एक बड़ी सी जुलुस जिसमें गांव के हर वर्ग के लोग शामिल थे , साथ में रंग बिरंग के ताज़िये के साथ हमारे घर के पास आकर रुकी। जुलुस में शामिल स्वर में लोग गीत गा रहे थे , जिसके बोल कुछ इस प्रकार थे
मोरे घर के पिछुवारुआ अमवा के गछिया बोलो हाय हाय
ताहि पर सुगना उचरलन बोलो हाय हाय
मचियानी बइठली अम्मा बढ़ितिन बोलो हाय हाय।
जहाँ तक मुझे याद है गीत के बोल शायद यही थे.……।
घर के बड़े होने के नाते नाना जी अपने हाथों से मलीदा चढ़ाते और उसी मलीदे को प्रसाद स्वरूप सब लोगों में बाँट दिया जाता था। जुलुस के पीछे सोमवारीय दाई ( घर में काम करने वाली एक हिन्दू महिला ) मोर के पंख लेकर सबको झाड़ती हुई चलती थी। इस तरह सब लोग जुलुस में शामिल होकर कर्बलाः तक जाते जहाँ जुलुस समाप्त होती।
आज के परिवेश में मुझे बहुत दुःख होता है जब मैं लोगों को धर्म के नाम पर बहस करते या राजनीती करते देखती हूँ।
एक ऐसी याद जो मुझे हमेशा याद आती है वो है मुहर्रम पर निकलने वाला ताज़िया। हमारे नाना कुटमु गाँव के जमींदार हुआ करते थे, एक रोज़ बड़े सवेरे से ही दरवाजे के बाहर झाड़ सफाई का काम होने लगा जैसे आमतौर पर हमारे त्योहारों पर होता है। देखा बाहर चारो तरफ झाड़ू लगवाई गई फिर पानी का छिड़काव किया गया। घर के सारे लोग खासकर मर्द
जैसे हमारे नानाजी, बड़े मामा , छोटे मामा ,भैया लोग सब नहा धोकर तैयार होकर बहार प्रतीक्षारत हो गए। और घर की महिलाएं मलिदे ( एक प्रकार की मिठाई जो गुड़ ,आटे , घी वैगरह को मिलाकर बनाया जाता है ) बनाने की तैयारियां करने लगी। फिर एक बड़ी सी जुलुस जिसमें गांव के हर वर्ग के लोग शामिल थे , साथ में रंग बिरंग के ताज़िये के साथ हमारे घर के पास आकर रुकी। जुलुस में शामिल स्वर में लोग गीत गा रहे थे , जिसके बोल कुछ इस प्रकार थे
मोरे घर के पिछुवारुआ अमवा के गछिया बोलो हाय हाय
ताहि पर सुगना उचरलन बोलो हाय हाय
मचियानी बइठली अम्मा बढ़ितिन बोलो हाय हाय।
जहाँ तक मुझे याद है गीत के बोल शायद यही थे.……।
घर के बड़े होने के नाते नाना जी अपने हाथों से मलीदा चढ़ाते और उसी मलीदे को प्रसाद स्वरूप सब लोगों में बाँट दिया जाता था। जुलुस के पीछे सोमवारीय दाई ( घर में काम करने वाली एक हिन्दू महिला ) मोर के पंख लेकर सबको झाड़ती हुई चलती थी। इस तरह सब लोग जुलुस में शामिल होकर कर्बलाः तक जाते जहाँ जुलुस समाप्त होती।
आज के परिवेश में मुझे बहुत दुःख होता है जब मैं लोगों को धर्म के नाम पर बहस करते या राजनीती करते देखती हूँ।