राजा भोज ने युद्ध में विजय के उपलक्ष्य में सारे नगर को भोज दिया. नाना प्रकार के व्यंजन इसमें बनाये गए व परोसे गए। खाने वालों ने राजा भोज की उदारता की भरपूर प्रशंसा की , जिसे सुनकर राजा भोज का सिर अहंकार से ऊपर उठ गया। और अधिक प्रशंसा सुनने के उद्देश्य से वे वेश बदलकर नगर भ्रमण के लिए निकले। मार्ग में उन्हें एक लकड़हारा मिला ,जो अपने कंधे पर लकड़ियों का एक बड़ा गट्ठर लिए चला जा रहा था। राजा भोज उसे रोककर बोले " क्यूँ भाई ! आज के दिन तो राजा ने भोज दिया था,फिर इतनी ज्यादा मेहनत किसलिए कर रहे हो ? क्या तुम्हें राजा का आमंत्रण नहीं मिला? " सुनकर लकड़हारा बोला " नहीं भाई ! निमंत्रण तो मिला था ,पर मैंने सोंचा कि यदि बिना परिश्रम खाने की आदत पड़ गई तो जीवन भर ऐसे ही निमंत्रणों की प्रतीक्षा करता रहूँगा और परिश्रम करने की प्रवृति गवां बैठूंगा। आत्मगौरव अपने परिश्रम का खाने में ही है,दूसरों की प्रदत सहयता में नहीं। " राजा भोज का अहंकार लकड़हारे की बात सुनकर विगलित हो गया , पर साथ ही उन्हें गर्वानुभूति भी हुई की उनके राज्य में इतने नैष्ठिक नागरिक भी निवास करते हैं।
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