हम सब मानसिक रूप से मर चुके हैं ..........हमारी सोंचने समझने की शक्ति दम तोड़ रही है खुद को बुद्धिजीवी सझने वाले हम जैसे लोगों की समझ उस वक्त कहाँ चली जाती है जब इसकी जरुरत होती है?
हम कैसे किसी को रास्ते पर गिरा हुआ देखकर आगे बढ़ सकतेहै ?कल को उस जगह पर हमारा कोई अपना भी तो हो सकता है ........लेकिन हमें क्या हमारे पास इतना वक्त कहाँ जो हम इतना सोंचे .............
हमें सिर्फ अपने अधिकार मालूम होते हैं .......हमारी कुछ दायित्व भी है इससे हमें कोई सरोकार ही नहीं है .........
मैं भी शायद उस जगह पर होती तो मैं भी नहीं रूकती मैं भी यही सोंचती की कौन पुलिस के झमेले में पड़े ........क्या मेरा ऐसा सोंचना गलत होता ? नहीं, क्योंकि मैं एक बार एसा कर के फंस चुकी हूँ ..........मैं भी अपने दायित्व को भूल चुकी हूँ ...........हमारे समाज में कुछ की लोग हैं जो सचमुच में जीते हैं .............जिनके हाथ में सत्ता की बागडोर है ............या जिनके पास अथाह धन सम्पत्ति है जो सत्ता को अपने अधीन रख सकते हैं ..............
हमारे जैसे लोगों को पुलिस से सहायता मांगना जो किसी भी देश की नागरीक का मौलिक अधिकार होता है "एक भयानक सपने" के समान है ........मैं तो हर दिन यही प्रार्थना करती हूँ की इस देश में किसी को भी डॉक्टर ,नेता और पुलिस से पाला ना पड़े ............सुनने और सुनाने में तो ये बातें काफी घिसीपिटी लगती है पर है बिलकुल सत्य .......
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